Read this essay in Hindi to learn about the impact left by detente behaviour of U.S.A. and soviet union on international political system.
सोवियत संघ-अमरीका तनाव-शैथिल्य ने शीत-युद्ध के तनावपूर्ण वातावरण को समाप्त किया; शस्त्रीकरण की होड़ को सीमित किया; संयुक्त राष्ट्र संघ के कार्य को आसान बनाया; परमाणु-युद्ध के आतंक से मानव जाति को किया और विरोधी विचार प्रणालियों वाले राष्ट्रों में सम्वाद और मेल-मिलाप प्रारम्भ करके अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में बदलाव प्रस्तुत किया ।
सोवियत संघ-अमरीका दितान्त व्यवहार का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में निम्न प्रभाव देखा जा सकता हैं:
1. महाशक्तियों के मध्य सहयोग और मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का विकास:
द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद विश्व राजनीति में गुटीय विभाजन स्वंष्ट रूप से दिखायी देता था । दितान्त व्यवहार की शुरूआत के बाद महाशक्तियों एवं उनके पिछलग्गू राज्यों में आपसी आदान-प्रदान, सामंजस्य और समझौतापूर्ण सम्बन्धों का नया उभरता हुआ आचरण दिखायी देता है ।
कभी निक्सन मास्को जाते है, तो कभी ब्रेझनेव वाशिंगटन, कभी ग्रोमिको अमरीका की यात्रा करते हैं तो कभी कीसिंजर सोवियत संघ की । ऐसा नहीं लगता था कि अमरीका और सोवियत संघ के अलग-अलग गुट हैं और यह गुट एक-दूसरे के विरोधी और दुश्मन हैं । यूरोप, पश्चिमी एशिया, दक्षिणी-पूर्वी एशिया अथवा दुनिया के अन्य भागों में ये महाशक्तियां टकराहट (Confrontation) की स्थिति में अब नहीं लगती थीं ।
2. यूरोपीय महाद्वीप अब विभाजित नहीं लगता:
1945 के बाद ऐसा लगता था कि यूरोपीय महाद्वीप दो भागों-पश्चिमी यूरोप और पूर्वी यूरोप में विभाजित-सा हो गया है । पश्चिमी और पूर्वी यूरोप के देशों में न तो नागरिकों का आदान-प्रदान होता था और न व्यापार होता था ।
जर्मनी और बर्लिन की समस्याओं ने यूरोप का कठोरतापूर्वक विभाजन कर दिया था । दितान्त सम्बन्धों की शुरुआत के बाद पूर्वी और पश्चिमी यूरोप के देशों में व्यापार की वृद्धि हुई, सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भवन विस्तार हुआ और ऐसा लगा कि अब यूरोपीय देशों की एकजुटता में वृद्धि हो रही है ।
3. तीसरे महायुद्ध के भय से मुक्ति:
1950-60 के दशक में सोवियत रूस-अमरीका शस प्रतिस्पर्द्धा को देखते हुए ऐसा लगता था कि दुनिया पर तृतीय महायुद्ध का खतरा मंडरा रहा है । दितान्त व्यवहार ने इस खतरे को लगभग समाप्त कर दिया । किसी भी संकट के समय सोवियत रूस-अमरीकी नेता ‘हॉट लाइन’ से बात कर सकते थे और आसन्न खतरे को टाला जा सकता था ।
4. परमाणु शस्त्रों के नियन्त्रण के लिए प्रयत्न:
शीत-युद्ध काल में महाशक्तियों की शक्ति परमाणु शस्त्रों के निर्माण पर लगी हुई थी । दितान्त व्यवहार के बाद परमाणु शस्त्रों के बारे में महाशक्तियों के रुझान में परिवर्तन आया । परमाणु शस्त्रों की विनाशकारी शक्ति से सोवियत संघ और अमरीका समान रूप से चिन्तित प्रतीत हुए । 1972 की साल्ट-प्रथम सन्धि, और 1979 की साल्ट-द्वितीय सन्धि वस्तुत: सोवियत रूस-अमरीकी दितान्त व्यवहार के ही परिणाम हैं ।
5. गुटबन्दी में लिप्त राष्ट्रों के लिए पर्याप्त स्वतन्त्रता:
शीत-युद्ध के युग में गुटबन्दी में लिप्त राष्ट्रों की स्वतन्त्र निर्णय-शक्ति धूमिल हो गयी थी । उन्हें किसी भी अन्तराष्ट्रीय प्रश्न पर अपने-अपने गुटीय नेता की दृष्टि से सोचना पड़ता था । दितान्त व्यवहार से जहां एक ओर पश्चिमी जर्मनी, जापान, फ्रांस, फिलिपाइन्स, पाकिस्तान जैसे अमरीकी गुट से सम्बद्ध देशों के दृष्टिकोण में पर्याप्त लचीलापन एवं स्वतन्त्रता दिखायी देने लगी वहां दूसरी तरफ रूमानिया, पूर्वी जर्मनी, वियतनाम, क्यूबा जैसे सोवियत गुट से सम्बद्ध राष्ट्र भी स्वतन्त्र दृष्टि से सोचने-विचारने लगे थे ।
दितान्त व्यवहार का ही परिणाम था कि पुर्तगाल, पाकिस्तान,
रोमानिया जैसे देश गुटनिरपेक्ष आन्दोलन में शामिल हो गये; जापान ने अपने राष्ट्रीय हितों के कारण फरवरी 1972 में मंगोलिया गणराज्य को मान्यता दी और मई 1973 में उत्तरी वियतनाम के साथ भी उसने राजनयिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये ।
6. संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर शालीन व्यवहार की प्रवृत्ति:
डॉ. एम. एस. राजन के अनुसार, शीत-युद्धकाल में संयुक्त राष्ट्र संघ प्रचार, आलोचना और छींटाकशी का मंच बन गया था । महाशक्तियों में दितान्त आचरण की शुरुआत के बाद एक बार पुन: संयुक्त राष्ट्र संघ शालीन और गरिमामय अन्तर्राष्ट्रीय मंच के रूप में उभरने लगा ।
अब महाशक्तियां संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही में अड़ंगा नहीं डालतीं, इसकी विभिन्न एजेन्सियों की कार्यवाही में सहजता और शालीनता देखने को मिलने लगी । वीटो का भी अब बार-बार प्रयोग नहीं किया गया और गुटीय आधार पर किसी नये राष्ट्र के प्रवेश को भी टाला नहीं गया ।
7. गुटनिरपेक्षता की प्रासंगिकता पर प्रश्न-चिह्न:
कुछ लोगों का विचार था कि गुटनिरपेक्षता शीत-युद्ध के सन्दर्भ में उत्पन्न हुई और पली, इसलिए अब शीत-युद्ध में ढील आ जाने के कारण दितान्त युग में गुटनिरपेक्षता बेमानी हो गयी । इसके विपरीत, कतिपय विचारकों का मत था कि दितान्त के कारण अब गुटनिरपेक्ष राष्ट्र महाशक्तियों के संदेह और अविश्वास का शिकार नहीं बनते । किसी एक महाशक्ति के साथ गुटनिरपेक्ष देश के विशिष्ट सम्बन्ध दूसरी महाशक्ति को खटकते नहीं ।
8. दितान्त यथास्थितिवाद की समर्थक धारणा है:
दितान्त धारणा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था के स्थायित्व और उसके बने रहने (Survival) पर बल देता है । सोवियत संघ-अमरीका का हित इसी में था कि उन्होंने वर्तमान यथास्थिति (Status Quo) को बरकरार रखने के लिए आपसी समझौता (Understanding) कर लिया ।
इस धारणा में ‘स्थायित्व’ और व्यवस्था अनुरक्षण की परिस्थितियों पर अत्यधिक ध्यान दिया गया । इसका अनेक लोग यह अर्थ लगाते हैं कि दितान्त यथास्थिति का रक्षक, रूढ़िवादी और सामाजिक व अन्य प्रकार के पर्यावरणी परिवर्तनों के प्रति उदासीन रहा ।
9. महाशक्तियों के आचरण में विनय और सद्व्यवहार के लक्षण:
अमरीकी और सोवियत गुट के राष्ट्र एक-दूसरे के प्रति सभ्य राष्ट्रों की भांति व्यवहार करने लगे, पारस्परिक सद्व्यवहार का पालन करने लगे और उनके आचरण में विनय के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे ।
निष्कर्ष:
संक्षेप में, दितान्त के कारण शीत-युद्ध ठण्डे सह-अस्तित्व का रूप धारण कर चुका था और वह अब लावा नहीं उगलता था । दितान्त सम्बन्धों के विकसित होने से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से शत्रुतापूर्ण युद्धरत स्थित का अन्त हुआ । रचनात्मक पुनर्निर्माण और सहयोग के नूतन युग का सूत्रपात हुआ ।
दितान्त की उभरती हुई प्रवृत्तियों के कारण विश्व-युद्ध के सम्भाव्य कारणों का अन्त होने लगा और महाशक्तियों के नागरिक शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए आशान्वित हुए । नि:शस्त्रीकरण के क्षेत्र में सहयोग की वृद्धि हुई, सैनिक भिड़न्त और आणविक-युद्ध के खतरे कम होने लगे ।