Read this essay in Hindi to learn about the various features of Pakistan’s foreign policy.
1. भारत विरोध:
भारत का विरोध पाकिस्तान की विदेश नीति का आधार स्तम्भ है । भारत विभाजन के समय की धृणा और अविश्वास ने दोनों ही देशों को आज तक युद्ध की तैयारी में लगाए रखा । भारत के प्रति शत्रुता का विचार पाकिस्तान की धार्मिक राजनीति का एक अनिवार्य अंग बन गया है । भारत और पाकिस्तान के मध्य तीन बार युद्ध हो चुके हैं और मई-जुलाई, 1999 में करगिल में घुसपैठिए भेजकर पाकिस्तान ने युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी ।
2. जम्मू-कश्मीर मसले का अन्तर्राष्ट्रीयकरण:
जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है किन्तु सर्वप्रथम तो पाकिस्तान ने युद्ध द्वारा उसे हथियाने का प्रयत्न किया; बाद में आतंकवाद और घुसपैठिए भेजकर अस्थिरता उत्पन्न करने की नीति अपनाई और अब पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर में मानवाधिकार हनन की घटनाओं का दुष्प्रचार करके इस मसले का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करता जा रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ के विभिन्न निकायों में, गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलनों में तथा सार्क शिखर सम्मेलनों में पाकिस्तान किसी-न-किसी बहाने कश्मीर मुद्दे को अवश्य उठाता है । जनरल परवेज मुशर्रफ ने तो यहां तक धमकी दी है कि- ”कश्मीर मसले पर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल सम्भव है ।”
3. अमरीका का पिछलग्गू:
पाकिस्तान भारतीय उपमहाद्वीप में अमरीका का पिछलग्गू एवं अमरीकी परस्त विदेश नीति अपनाने वाला देश है । पाकिस्तान ‘सीटों’ एवं ‘सेण्टो’ का सदस्य बना; पेशावर के अड्डे को अमरीका को उपभोग करने देने के लिए प्रतिबद्ध था तथा अमरीका से हथियार प्राप्त करता रहा ।
कुलदीप नय्यर लिखते हैं- ”अपने जन्म के समय से ही पाकिस्तान का महत्व अमरीका की राजनीतिक रणनीति के लिए बहुत अधिक था । पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसका प्रयोग एशिया में मौजूद तीन (अब दो) ताकतों के खिलाफ निगरानी व सैनिक कार्यवाही के लिए अड्डे के रूप में किया जा सकता था । पूर्व सोवियत संघ, चीन तथा भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को साथ रखने व सैनिक सहयोगी के रूप में उसे मजबूत बनाने की इस जरूरत ने ही अमरीका को बाध्य किया था कि वह पाकिस्तान की भरपूर सैनिक व आर्थिक सहायता करे तथा राजनयिक खेल के मैदान में उसकी हर सही व गलत चाल का समर्थन करे ।”
4. शस्रीकरण की नीति:
पाकिस्तान पश्चिमी देशों से शस प्राप्त कर अपने को शक्तिशाली बनाता रहा । उसने अमरीका चीन और यहां तक कि पूर्व सोवियत संघ से भी हथियार प्राप्त किए । पाकिस्तान हालांकि इन्कार करता है पर विशेषज्ञों का मानना है कि चीन और कुछ हद तक जर्मनी पाकिस्तानी बम के जनक होने का दावा कर सकते हैं ।
चीन ने अतीत में कई तरह के हथियारों के अतिरिक्त पाकिस्तान को बम ढोने के लिए मिसाइलें भी दीं । 1992 और 1994 के बीच चीन ने पाकिस्तान को 50 से ज्यादा एम-11 मिसाइलें देने के अतिरिक्त काहूटा में यूरेनियम संवर्धन सुविधा के लिए रिंग मैगनेट भी दिए । 1997 में पाकिस्तान ने हत्फ-III नामक एक अन्य मिसाइल, जो असल में चीनी एम-9 मिसाइल है के सफल परीक्षण की घोषणा की ।
6 अप्रैल, 1998 को पाकिस्तान ने हत्फ-V (गौरी) नामक एक बेलिस्टिक मिसाइल का सफल परीक्षण करने की घोषणा की । वस्तुत: चीन ही पाकिस्तान की गौरी मिसाइल का भी जनक है । यह सात सो किलो वहन क्षमता वाली ऐसी दुर्जेय मिसाइल है, जो 1500 किमी. तक अचूक निशाना बेध सकती है ।
5. इस्लामिक आधार:
पाकिस्तान की विदेश नीति का इल्लामिक आधार रहा है । नवाज शरीफ ने घोषणा की थी कि शरीअत या इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था ही जिसके मूल आधार कुरान और सुन्ना हैं देश का सर्वोच्च कानून होंगी । एक जमाने में भुट्टो इस्लामिक बम बनाने की बात कर
ते थे ।
भुट्टो ने स्वयं लिखा है- ”ईसाई, यहूदी ओर हिन्दू कौमों के पास यह हैसियत (परमाणु बम) है; साम्यवादी ताकतों के पास भी यह है सिर्फ मुस्लिम सभ्यता ही इससे महरूम है…..।’ पाकिस्तान ने घोषित किया कि उसने मई 1998 को छह नाभिकीय परीक्षण किए ।
यह कहा गया कि ये परीक्षण मई, 1998 के आरम्भ में भारत द्वारा किए गए नाभिकीय परीक्षणों की प्रतिक्रिया में किए गए थे । 28 मई, 1998 को सारी दुनिया के सामने पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण करने का औचित्य पेश करते हुए प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ ने कहा कि, ”सीधे अल्लाह से हुक्म मिलने पर ही उन्होंने वैज्ञानिकों को परमाणु परीक्षणों की इजाजत दी ।”
6. सेना की भूमिका:
इण्डिया टुडे लिखता है- ”जिस देश के कुल 67 वर्ष के इतिहास में आधे समय फौजी शासन रहा हो जहां फौजी शासक जियाउल हक की 11 वर्ष पहले मौत के बाद हर निर्वाचित सरकार कार्यकाल पूरा करने के पहले ही बर्खास्त की जाती रही हो जहां परमाणु बटन फौज के ही हाथ है…।”
सन् 1947 के बाद पाकिस्तानी जनता को लम्बे समय तक सैनिक सत्ता के अधीन रहना पड़ा । पाकिस्तान का कुलक वर्ग उच्च नौकरशाही तथा उच्च सैनिक अधिकारी अपने-अपने आर्थिक हितों की अभिवृद्धि के लिए एक-दूसरे का सहयोग करते रहे तथा सैनिक शासन को बनाये रखने में महती भूमिका निभाते रहे ।
सैनिक सत्ता का आज भी विदेश नीति के निर्माताओं पर यथोचित दबाव है ताकि राज्य की कुल आय का आधे से ज्यादा भाग सेना और रक्षा पर व्यय किया जा सके । विदेश नीति के निर्माण में सेना एवं सैनिक अधिकारियों की प्रभावक भूमिका से उग्र और आक्रामक विदेश नीति के लिए मार्ग प्रशस्त होता है ।
संक्षेप में, पाकिस्तान की विदेश नीति अवसरवादी रही है । वह कभी संयुक्त राज्य अमरीका तो कभी चीन और पूर्व सोवियत संघ के मोहरे के रूप में काम करता रहा है । अमरीका ने आर्थिक और सैनिक सहायता देकर न केवल उसकी परवरिश की अपितु इस ढंग से की कि पाकिस्तान एक बिगड़े हुए बच्चे के रूप में बड़ा हुआ ।
भले ही उसने आणविक विस्फोट कर दक्षिण एशिया में सन्तुलन स्थापित करने का प्रयत्न किया हो किन्तु आज पाकिस्तान की आर्थिक दशा शोचनीय है । विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान दिवालियापन के कगार पर पहुंच गया है । विदेशी ऋण का बोझ अत्यधिक हो जाने के कारण पाकिस्तान के समुख भुगतान सन्तुलन का संकट पैदा हो गया है ।
पाक सरकार को सरकारी आमदनी का 25 प्रतिशत विदेशी ऋणों और ग्रांटों के द्वारा प्राप्त होता है और सरकारी खर्चे का 50 प्रतिशत विदेशी ऋण के भुगतान में खर्च हो जाता है । पाक के पास सिर्फ 1.56 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा कोष रिजर्व में होने के कारण उसकी स्थिति अत्यन्त डांवाडोल कही जा सकती है ।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष विश्व बैंक व एशियन डवलपमेन्ट बैंक जैसी संस्थाओं से हर वर्ष 25 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता प्राप्त करने के बावजूद पाकिस्तान की 40 प्रतिशत से अधिक जनता गरीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बसर कर रही है ।
विश्व बैंक के नजरिए में पाकिस्तान एक बेहद कम आमदनी वाला देश है जहां पर ढांचागत निवेश व सामाजिक और आर्थिक विकास पर बहुत कम संसाधनों की उपलब्धता है । पाक कृषि की सकल घरेलू उत्पाद में 24 प्रतिशत की भागीदारी है व कृषि देश की 50 प्रतिशत से अधिक श्रमिकों को रोजगार मुहैया कराती है । फिर भी पाकिस्तान खाद्य पदार्थों का एक बड़ा आयातक है । जुलाई, 2015 में पाकिस्तान पर 65,147 मिलियन डॉलर का विदेशी ऋण था ।
पाकिस्तान कॉटन टेक्सटाइल उत्पादों का एक अग्रणी निर्यातक होने के बावजूद अपने व्यापारिक घाटे को नियमित करने में नाकाम रहा है । पाकिस्तान के राजनीतिक व प्रभावशाली लोगों ने बैंकों से लिए कर्जे की वापसी न करके इन बैंकों की आर्थिक स्थिति का भट्टा बिठा दिया है । इस समय पाकिस्तान के बैंकों के नान फारमिं
ग लोन्स की राशि 2.9 अरब डॉलर तक जा पहुंची है ।
सिर्फ एक प्रतिशत के लगभग पाकिस्तानी जनता आयकर देती है और पाकिस्तान की सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 13 प्रतिशत करों से प्राप्त होता है । प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की इस देश में लगातार गिरावट देखने को मिल रही है ।
कुल मिलाकर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था बदहाली का शिकार है । भारत के साथ आर्थिक रिश्ते मजबूत करके व आतंकवाद प्रमोट करने का कारोबार बन्द करके ही पाक अपनी वित्तीय स्थिति को सुधार सकता है । पाक के आर्थिक विकास में भारत एक बड़ी हिस्सेदारी निभा सकता है ।
जहां पर दोनों देशों के बीच व्यापार का सवाल हे भारत दुनिया का सबसे बड़ा चाय का उत्पादक है और पाक तीसरा बड़ा आयातक । इसी तरह पाकिस्तान बड़ा कपास उत्पादक है और भारत एक पुराना आयातक है । दोनों के बीच एक अच्छी साझेदारी की उम्मीद की जा सकती है । पाक हर वर्ष 110-130 मिलियन किलो चाय कीनिया, श्रीलंका और बांग्लादेश से आयात करता है ।
यहां पर भारतीय व्यापारियों के लिए सड़क के रास्ते व्यापार खुलने पर निर्यात के पर्याप्त अवसर मौजूद हैं । कहने का अभिप्राय है कि यदि सीधा व्यापार शुरू होता है तो इससे पाकिस्तान के व्यापार को काफी लाभ पहुंच सकता है । पाकिस्तान में पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक गैस भण्डार कोयला व जल विद्युत के स्रोत मौजूद हैं ।
लेकिन पूंजी की कमी और घरेलू मुश्किलों के कारण इनका सदुपयोग नहीं हो सकता है । भारत में निजी क्षेत्र की अग्रणी कम्पनियों के लिए पाक में इन क्षेत्रों के विकास के लिए सम्भावनाएं उपलब्ध हैं जिससे पाकिस्तान को तेल इत्यादि के ऊपर व्यय की जाने वाली विदेशी मुद्रा बचाने में सहायता मिल सकती है । व्यापार दोनों देशों के बीच शांति की बहाली के लिए एक मजबूत पहिए का काम करेगा ।
विश्व व्यापार केन्द्र और पेंटागन पर आतंकवादी हमलों के बाद पाकिस्तान की स्थिति सांप-छछूंदर जैसी हो गई । राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने राष्ट्र के नाम सन्देश में अमरीका पर आतंककारी हमले की निन्दा की, अमरीका को सभी तरह का सैन्य समर्थन देने की घोषणा की । किन्तु अमरीका जिस तालिबान से लड़ा वह असल में पाकिस्तान की ही रचना है । पाकिस्तान में ही उन्हें प्रशिक्षण दिया गया । काबुल की सत्ता पर आसीन
तालिबान पाकिस्तान का ही हित संवर्द्धन करते रहे हैं । सीमा पार के आतंकवाद में पाकिस्तान ने तालिबान का इस्तेमाल किया । अत: पाकिस्तान ने पलटा खाते हुए आगे कहा कि अफगानिस्तान पर किसी शत्रुतापूर्ण कार्यवाही में पाकिस्तान भाग नहीं लेगा । पाकिस्तान को न तालिबान पर हमला स्वीकार था और न ही उसका अपदस्थ किया जाना ।
राष्ट्रपति मुशर्रफ ने ठीक ही कहा कि- ”यह समय 1971 के बाद पाकिस्तान के इतिहास का सर्वाधिक दुविधापूर्ण समय है ।” इण्डिया टुडे ने ठीक ही लिखा है- ”राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने आतंकवादी ओसामा बिन लादेन के खिलाफ जंग में अमरीका का साथ देने का निर्णय तो कर लिया मगर खतरा यह है कि उनके मुल्क के कट्टरपंथी तत्व, जो तालिबान के हमदर्द हैं पाकिस्तान को अराजकता के गर्त में न धकेल दें ।”
आज पाकिस्तान की सामुद्रिक सीमा में अमरीका की जल सेना तथा पाकिस्तान की भूमि पर अमरीका की वायुसेना तैनात है । विदेशी सेनाओं के साये में पल कर कोई देश स्वतन्त्र राजनय का नियामक नहीं बन सकता । पाकिस्तान का जैसा कूटनीतिक इस्तेमाल चीन कर रहा है कोई भी स्वतन्त्र एवं स्वाभिमानी देश इस तरह से अपना इस्तेमाल नहीं होने देता । लेकिन पाकिस्तान में जिस प्रकार कूटनीति का नियमन होता है, उसके कारण यह अपमानजनक राजनय भी उन्हें सफलता का-सा सुख प्रदान कर रही है ।