Here is a paragraph on the ‘Balance of Terror’ especially written for school and college students in Hindi language.
केनेथ वॉल्टज का मत है कि द्वितीय महायुद्ध के बाद जिस द्वि-ध्रुवीय विश्व व्यवस्था का जन्म हुआ उसकी सहायता से हम कम-से-कम विश्व की दोनों महाशक्तियों के बीच सीधा संघर्ष रोकने में सफल हुए, क्योंकि सोवियत संघ और अमरीका की शक्ति लगभग बराबर होने की वजह से दोनों के बीच शक्ति सन्तुलन कायम रहा है ।
विंस्टन चर्चिल ने इसे ‘आतंक का सन्तुलन’ (Balance of Terror) कहकर पुकारा है । अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनी रही, क्योंकि दोनों महानतम शक्तियों के बीच परमाणु अस्त्रों का सन्तुलन बना रहा । किसी राइट की भी मान्यता है कि निरस्त्रीकरण से सम्भवत: युद्ध अधिक होने की प्रवृत्ति विकसित होती है ।
उसका कहना है कि युद्ध होने की सम्भावना उस समय तक अधिक रहती है जब राज्यों के पास हथियार कम हों । कारण यह है कि यदि उनके पास प्रचुर हथियार हैं तो वे एक-दूसरे को नष्ट करने की शक्ति हाथ में होने के कारण एक-दूसरे को रोकते रहेंगे ।
परन्तु यदि उनके पास हथियार थोड़े हैं तो युद्ध की नीति का बिना अधिक झिझक एवं संकोच के उपयोग करेंगे । परमाणु के नए हथियार युद्ध का सहारा लेने की अनिच्छा पैदा कर देते हैं और निरस्त्रीकरण यह सम्भावना पैदा कर देता है कि राष्ट्र अपेक्षाकृत कम खर्च में विजय हासिल कर सकते हैं ।
इस दृष्टि से ‘आतंक के सन्तुलन’ का सिद्धान्त इस सम्मावना को चिन्तन से बाहर कर देता है कि निरस्त्रीकरण अन्तर्राष्ट्रीय तनाव घटा सकता है या युद्ध को मिटा सकता है । इसके विपरीत स्वयं आतंक के सन्तुलन का जारी रहना उस उद्देश्य की सिद्धि के लिए आवश्यक समझा जाता है जिसे निरस्त्रीकरण हासिल करना चाहता है ।
द्वितीय महायुद्ध से बड़ा कोई युद्ध नहीं हुआ, क्योंकि सभी शक्तियां परमाणु युग की वास्तविकताओं से परिचित थीं । भले ही शक्ति का सन्तुलन स्थापित न हुआ हो, किन्तु आतंक और भय का सन्तुलन तो स्थापित हो ही चुका है ।
आज संयुक्त राज्य अमरीका ताईवान के मुद्दे पर चीन से, भारत-कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से नहीं भिड़ना चाहता, क्योंकि परमाणु शस्त्रों का आतंक दोनों ओर से बराबर सा है । हर्ज यह रेखांकित करता है कि परमाणु युद्ध की भयानकता ने महाशक्तियों के विदेश नीति सम्बन्धी रुखों में बुनियादी परिवर्तन कर दिया है, क्योंकि अब स्थिति यह है कि यदि बलप्रयोग से बड़ा युद्ध भड़कने का खतरा हो तो राष्ट्र हमेशा इससे बचने की कोशिश करते रहते हैं ।
इसी कारण महाशक्तियों की परमाणु शक्ति इस अर्थ में ‘अनुलब्ध’ है कि परमाणु कार्यवाही के प्रभाव दोनों पक्षों द्वारा अस्वीकार्य समझे जाते हैं । असल में हर्ज इससे भी आगे जाता है और कहता है कि युद्ध के बड़ा बन जाने का भय परम्परागत हथियारों के प्रयोग पर भी रुकावट लगाता है ।